स्तन कैंसर जागरुकता में सोशल और भाषायी टैबू भी हैं बाधा- Breast cancer awareness ke liye sociatal aur language taboos ki ladayi.


स्तन टाइप करते ही इंटरनेट पर वह सब आता है, जिसे आप वल्गर या पोर्न कह सकते हैं। जबकि स्तन स्वास्थ्य और स्तन कैंसर के बारे में जानकारी कहीं पिछले पेज पर चली जाती है। आखिर कैसे विकसित हुआ सर्च का यह अल्गोरिद्म? क्या इसके मूल में यौनांगों के बारे में सोशल टैबू है?

हम भाई-बहनों को मां ने अपने केवल एक स्तन का दूध पिलाया है। हमें याद है कि उनके बाएं स्तन के निप्पल के पास एक फोड़ा हो जाता था, जिसे वे सभी से छुपाए रखती थीं। इस समस्या के बारे में वे अपनी स्त्री रोग विशेषज्ञ को तो बताती थीं, पर इससे आगे उपचार के लिए नहीं जा पाती थीं। उन्हें संकोच था कि ज्यादातर डॉक्टर पुरुष होते हैं और वे अपना ब्लाउज खोल कर एक पुरुष को कैसे दिखाएं। इस संकोच और शर्म से उबरने में उन्हें कई साल लग गए। अंतत: एक छोटी सी सर्जरी के बाद उस गांठ को निकाल दिया गया। अगर हमारे एक डॉक्टर रिश्तेदार का दबाव न होता, तो शायद इस शर्म के जोखिम कुछ और भयावह हो सकते थे।

स्तन कैंसर (Breast Cancer) दुनिया में होने वाली मौतों का दूसरा सबसे बड़ा कारण है। भारत में इसकी लड़ाई सिर्फ संसाधन और उपचारात्मक उपायों के बारे में ही नहीं है, बल्कि शर्म (Breast cancer and taboos) एक मजबूत बाधा है। जिससे तोड़ना हर महिला ही नहीं, पुरुषों की भी जिम्मेदारी है। सबसे ज्यादा उन लोगों की जो डॉक्टर हैं, सर्जन हैं या वे गैर सरकारी संस्थाएं जो जागरुकता के लिए काम कर रही हैं। मगर समस्या यह है कि ये संस्थाएं भी सही भाषा और सही एप्रोच विकसिक नहीं कर पाई हैं। इसमें कभी सस्ते पोर्न साहित्य की झलक मिलती है, तो कभी आयातित मुहावरों की। हाल ही में स्तन को ऑरेंज कहे जाने पर जो बवाल हुआ, वही इसी की एक बानगी है।

क्या था पूरा मामला 

युवराज सिंह की गैरसरकारी संस्था यूवीकेन (YouWeCan) ने ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस पर एक विज्ञापन जारी किया था। दिल्ली मेट्रो में लगाए गए इन विज्ञापनों में स्तनों को ऑरेंन्ज लिखा गया।  विज्ञापन का टेगलाइन था,”Check your oranges”। इसके बाद सोशल मीडिया पर बवाल मच गया। महिलाओं ही नहीं पुरुषों ने भी स्तन को इस तरह ऑब्जेक्टिफाई करने पर कड़ी आपत्ति की।

Agar apki breast cancer ki family history hai to apko genetic testing zarur karwani chahiye.
आखिर स्तन को स्तन ही नहीं कहेंगे तो उपचार किसका करेंगे? चित्र : अडोबीस्टॉक

और अंतत: दिल्ली मेट्रो ने उन विज्ञापनों को उतार दिया। मगर सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों अभी तक हम इंटीमेट ऑर्गन्स को फल-सब्जियों के नामों से ऑब्जेक्टिफाई (Breast cancer and taboos) करते रहे हैं। सस्ते पोर्न साहित्य की भाषा से लेकर एक जिम्मेदार संस्था के कैंसर जागरुकता विज्ञापन तक, आखिर स्तन को स्तन कहने में क्या दिक्कत है? क्यों इन्हें नींबू,संतरे, पॉपकॉर्न या कद्दू जैसे नामों से ऑब्जेक्टिफाई किया जाता है?

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आपत्ति किस बात पर है? 

अक्टूबर को ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस मंथ के रूप में बनाया जाता है। ऐसे में महिलाओं में ब्रेस्ट एग्ज़ामिनेशन से लेकर इसके जोखिम कारको तक जागरूकता फैलाने के लिए कई तरह के सेमिनार और कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। पूर्व क्रिकेटर युवराज सिंह की संस्था यूवीकैन ने जो पोस्टर जारी किया, उसमें बस में सवार एक महिला हाथों में दो संतरे लिए खड़ी थी और बाकी महिलाएं उसकी तरफ देख रही थीं। दिखने में यह एआई जनरेटेड विज्ञापन लग रहा था जिसमें लिखा गया था, ‘Check your oranges-once in a month’। इसी तरह के दूसरे विज्ञापन में ‘How well do you know your oranges’ लिखा गया था। जिसमें दो महिलाएं संतरे देख रहीं थीं।

क्या है इसके पीछे की मानसिकता 

सिर्फ स्तन ही नहीं, यहां योनि (Vagina) भगशेफ (Vulva), अंडकोष (testicles) और शिश्न (Penis) को भी फल-सब्जियों के नामों से ऑब्जेक्टिफाई किया जाता है।

यूनिवर्सिटी ऑफ विएना में लिंग्वस्टिक एक्सपर्ट क्रिस्टीना डिज़ियालास ने इस पर शोध किया कि क्यों महिला और पुरुष यौनांगों को इस तरह के नामों से संबोधित किया जाता है। यह शोध जुलाई 2020 में रिसर्चगेट पर प्रकाशित हुआ। जिसमें अंग्रेजी के साथ ही फ्रेंच और स्पेनिश भाषाओं में इनके लिए इस्तेमाल होने वाले 184 शब्दों का अध्ययन किया गया। क्रिस्टीना इसे भी जेंडर स्टीरियोटाइप के एक उदाहरण की तरह ही देखती हैं, जहां महिला यौनांगों को मिठास और नर्म फलों से संबोधित किया जाता है। जबकि पुरुष जननांगों को थोड़े कसैले और कठोर फल-सब्जियों के साथ।

स्तन को ऑरेंज कहे जाने पर क्या थी लोगों की प्रतिक्रिया

ये बेहूदापन है 

शुभम तिवारी लखनऊ में रहते हैं। वे मॉडल और एक्टर हैं और कहते हैं, “मेरी मां को कोविड की पहली लहर में स्तन कैंसर डिटेक्ट हुआ था। उनका इलाज करवाया गया और वे अब ठीक हैं। इसी तरह के बेहूदेपन के कारण लोग अपनी तकलीफ़ साफ़ नहीं बता पाते। अपने बच्चों और अपने घर के लोगों से भी वे इसे छुपाते हैं। जरूरत है पुरुषों को भी इसमें जागरुक किए जाने की। मगर जब विज्ञापनों में इस तरह का बेहूदापान इस्तेमाल होगा तो आम लोगों के बारे में तो क्या ही कहा जाए।  क्या ही कहा जाए इन लोगों को।”

विभा रानी ब्रेस्ट कैंसर फाइटर हैं। उन्होंने अपनी हिम्मत और सकारात्मकता के बल पर इसे पराजित किया है। वे कहती हैं, “नींबू, संतरा, सेब, दाभ नींबू, कद्दू…. इन्हीं नामों से तो बुलाए जाते हैं हमारे स्तन। स्तन या ब्रेस्ट बोलने में सबको अश्लील (Breast cancer and taboos) लगता है और यह सब बोलने में पर्दा। कितना पर्दा करें नामाकुलों के लिए। अपने ब्रेस्ट कैंसर के बीते दस सालों से यही समझाती आ रही हूं कि ब्रेस्ट बोलो, यूट्रस बोलो।”

ऐसा लगता है कि यह कोई वर्जित चीज है 

पल्लवी त्रिवेदी 

एडिशनल एसपी, पुलिस डिपार्टमेंट, मध्य प्रदेश

एक ज़िम्मेदार संस्था द्वारा स्तन कैंसर जागरूकता के लिए स्तनों को संतरे कहा जाना न केवल बेहूदा है बल्कि आपत्तिजनक भी है। स्त्री शरीर के अंगों को किसी वस्तु से जोड़ा जाना हमारे समाज में नया नहीं है बल्कि अश्लील भाषा में स्त्री अंगों को अलग अलग वस्तु कहकर चटखारे लेने का चलन हर स्तर पर है।

इस रोग को हराना है तो भाषायी टैबूज भी तोड़ने होंगे। चित्र : पल्लवी त्रिवेदी

ऐसे में किसी संस्था द्वारा सीधे स्तन न कहकर ऑरेंज (Breast as oranges) कहना व उसका चित्र लगाना स्त्री को न केवल ऑब्जेक्टिफाई करता है बल्कि उसे ऐसे निषिद्ध विषय के रूप में भी इंगित करता है जिसका कि नाम लिया जाना भी वर्जित हो। इसलिए हर स्तर पर इस विज्ञापन का विरोध होना चाहिए।

शर्म और ‘सर्च की भाषा’ ने बहुत उलझाया है 

डॉ मानसी चौहान, ब्रेस्ट ऑन्कोसर्जन

मैं इस मसले पर थोड़ी अलग राय रखती हूं। यकीनन ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस के बारे में शर्मिंदगी (Breast cancer and taboos) एक बहुत बड़ा मुद्दा है। युवा और बुजुर्ग महिलाएं भी अपने इस हिस्से को बहुत प्राइवेट रखती हैं। कोई परेशानी हो तब भी बात नहीं करती। उपचार के दौरान मेरे पास कई ऐसी बुजुर्ग महिलाएं आईं, जिनकी अपनी बहू के साथ अंडरस्टेंडिंग अच्छी नहीं थी और बेटे से वे इस मुद्दे पर बात नहीं कर सकतीं थीं। और बरसों बरस वे इस समस्या को झेलती रहीं। जबकि जल्दी पहचान और निदान होता तो उसका उपचार किया जा सकता था। ज्यादातर सर्जन पुरुष होते हैं और महिलाएं पुरुषों को अपनी समस्या बताना ही नहीं चाहतीं।

हेल्थ सेक्टर में बहुत कुछ विदेशों से कॉपी पेस्ट की तर्ज पर चल रहा होता है। जबकि हर जगह और हर समाज की अपनी जरूरतें हैं। यूएस की एक संस्था है Know your lemons जो ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस पर ही काम करती है। इस विज्ञापन में भी यही हुआ कि लेमन हटाकर ऑरेंज कर दिया गया। जबकि हमारा समाज और तरह का है। यहां की आधुनिकता भी अलग तरह की है। पेरिस में मैंने जिस संस्थान से ब्रेस्ट कैंसर सर्जरी में फैलोशिप की, उसका नाम ही ‘ब्रेस्ट क्लिनिक’ था।

डॉ मानसी चौहान देश और दुनिया भर में महिलाओं को ब्रेस्ट कैंसर के बारे में जागरुक कर रही हैं।

मैं ब्रेस्ट कैंसर सर्जन हूं और जब मुझे अपना पॉडकास्ट शुरू करना था तो मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती यही थी कि  इसका नाम क्या रखा जाए। अगर मैं इसे सीधे ब्रेस्ट से जोड़कर नाम रखती, तो इंटरनेट पर जो कंटेंट है, उसमें शायद मैं अपीयर ही नहीं हाे पाती। आप गूगल पर ब्रेस्ट या स्तन टाइप करें, तो आपको बहुत सारा पोर्न और सेमिपोर्न कंटेंट दिखता है।

ब्रेस्ट कैंसर का कंटेंट तो सर्च में दिखाई ही नहीं देता। इसलिए मुझे अपने पॉडकास्ट का नाम गुड बेटर ब्रेस्ट रखना पड़ा। जो ब्रेस्ट कैंसर के बारे में रोचक ढंग से जागरुक कर सके। हमें समस्याओं को अपने समुदाय के हिसाब से समझना और उनका समाधान ढूंढना होगा। विदेशी मुहावरों से हम भारत में बात नहीं कर पाएंगे।

स्तन कैंसर से बचाव में प्रभावी कदम है जल्दी निदान

अमेरिकन कैंसर सोसायटी जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्तन कैंसर सबसे अधिक पाया जाने वाला कैंसर है। रिपोर्ट के अनुसार साल 2022 में इंडिया में स्तन कैंसर के 216,108 मामले पाए गए । स्तन कैंसर की दर 1990 से 2016 तक 39 तक बढ़ गयी है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के अनुसार इसके सबसे अधिक मामले दिल्ली में पाए जाते हैं। उसके बाद चेन्नई, बैंगलोर और तिरुवनंतपुरम में महिलाएं ब्रेस्ट कैंसर की शिकार हो रही हैं।

ओन्को सर्जन डॉ मानसी चौहान कहती हैं, “जितना जल्दी इसका निदान हो सके, इसका  उपचार उतना ही सफल हो सकता है। इसलिए हम सभी महिलाओं को हर महीने सेल्फ ब्रेस्ट एग्जामिनेशन की सलाह देते हैं।” डॉ मानसी पिछले कई वर्षों से ब्रेस्ट कैंसर जागरुकता के लिए काम कर रही हैं। वे ब्रेस्ट कैंसर सर्जन भी हैं और इस रोग की गंभीरता और अर्ली डिटेक्शन की जरूरत के बारे में बार-बार बात करती हैं।

ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस के लिए जारी जिस विज्ञापन पर बवाल हुआ, उसमें भी अर्ली डिटेक्शन की जरूरत के महत्व को ही बताया गया था। मगर विज्ञापन की भाषा आपत्तिजनक थी, जिसका खूब विरोध हुआ।

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