उष्णकटिबंधीय वर्षावन ग्लोबल वार्मिंग से बच सकते हैं
स्रोत: द हिंदू
IIT खड़गपुर द्वारा हाल ही में किये गए एक अध्ययन से उष्णकटिबंधीय वर्षावनों की ग्लोबल वार्मिंग के प्रति संभावित लचीलेपन का पता चला है।
- अध्ययन में गुजरात के वस्तान कोयला खदानों से प्राप्त जीवाश्म उष्णकटिबंधीय वर्षावनों की जाँच की गई, जो 56 मिलियन वर्ष पुराने पैलियोसीन -इओसीन थर्मल मैक्सिमम (PETM) काल के हैं, जो अत्यधिक वैश्विक तापमान वृद्धि का युग था।
- वस्तान में कोयला परतें जीवाश्म उष्णकटिबंधीय वर्षावन हैं जिनमें PETM युग से समृद्ध पौधे, पराग , स्तनपायी और कीट अवशेष हैं, जब भारत उच्च CO2 स्तरों वाला एक उष्णकटिबंधीय द्वीप था।
- PETM, अंतिम पेलियोसीन और प्रारंभिक इओसीन युगों (लगभग 55 मिलियन वर्ष पूर्व) के दौरान लगभग 100,000 वर्षों तक चलने वाला अधिकतम तापमान का एक छोटा अंतराल है।
- PETM के दौरान वायुमंडलीय CO₂ की उच्च मात्रा के बावजूद, उष्णकटिबंधीय वर्षावन न केवल सुरक्षित रहे, बल्कि विविधतापूर्ण भी हुए, जो संभवतः “वर्षा-संरक्षित तापमान” के कारण कायम रहे।
- वर्षा-संरक्षित तापमान: तापमान वृद्धि के दौरान वर्षा में वृद्धि से संभवतः तापमान में कमी आई, जिससे वर्षावनों को संरक्षण मिला।
- वर्षावन: वर्षावन ऊँचे, अधिकतर सदाबहार वृक्षों (जैसे अमेज़न और पश्चिमी घाट ) से घनी आबादी वाला क्षेत्र है, तथा जहाँ पर्याप्त वर्षा होती है।
- वे मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय (कर्क और मकर) के बीच स्थित हैं। ये वर्षावन मध्य और दक्षिण अमेरिका, पश्चिमी और मध्य अफ्रीका, पश्चिमी भारत, दक्षिण पूर्व एशिया, न्यू गिनी द्वीप और ऑस्ट्रेलिया में पाए जाते हैं।
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