सोशल मीडिया के इस्तेमाल का युवाओं की दिमागी सेहत पर खासतौर पर प्रभाव पड़ता है। US Surgeon General दरअसल सभी अमेरिकी राज्यों के डॉक्टर को रीप्रेजेंट करता है। सभी सार्वजनिक स्वास्थ्य मामलों और स्वास्थ्य संबंधी आपातकालीन मामलों पर अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा सर्जन जनरल से परामर्श किया जाता है। यह अमेरिका में सर्वोच्च पदों में से एक है और अमेरिका के पूरे हेल्थकेयर सिस्टम की जिम्मेदारी इस पर होती है। वर्तमान के सर्जन जनरल, वायस एडमिरल विवेक मूर्ति ने NDTV से कई मुद्दों पर एक्सक्लूसिव बात की और इनमें लोगों की दिमागी सेहत पर सोशल मीडिया के असर का मुद्दा भी शामिल है।
उन्होंने बताया कि कई देश इस वक्त मेंटल हेल्थ इमरजेंसी से जूझ रहे हैं, डिप्रेशन के अनगिनत केस हैं, साथ ही एंजाइटी और यहां तक कि सुसाइड के मामले भी देशों के लिए समस्या बन रहे हैं। उन्होंने कहा कि मेंटल हेल्थ के बारे में लोग अपने परिवार और आसपास के लोगों से बात नहीं कर पाते हैं, और न ही करना चाहते हैं। इससे उनका संघर्ष और ज्यादा बढ़ जाता है। लेकिन मेंटल हेल्थ भी किसी की फिजिकल हेल्थ जितनी ही ज्यादा जरूरी है। इसे प्राथमिकता के साथ लेना चाहिए।
यहां पर पीढ़ियों का अंतर भी अहम रोल प्ले करता है। पुरानी पीढ़ी के लोग इस मुद्दे पर बहुत कम बात करते थे। तुलनात्मक रूप से नई पीढ़ी के लोग इस पर ज्यादा बात करते हैं। इसके साथ ही अलग-अलग क्षेत्रों का कल्चर भी एक फैक्टर है। उन्होंने कहा कि उनका परिवार मूल रूप से भारत से है, लेकिन हमने कभी मेंटल हेल्थ के बारे में बात नहीं की।
आज के युवाओं पर जिंदगी में बेहतर करने का बहुत प्रेशर है। जब उनसे पूछा जाता है कि उनके लिए सफलता के क्या मायने हैं तो जवाब मिलता है कि लोग उनसे उम्मीद करते हैं कि उनके पास बहुत सारा पैसा हो, उनका दुनिया में बड़ा नाम हो, और उनके पास बड़ी पावर हो। ये सब चाहना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन अगर लोग सोचने लगें कि जिंदगी में लम्बे समय के लिए संतुष्टि का रास्ता कहां से होकर जाता है तो जिंदगी के तजुरबे कुछ और सुझाव देते नजर आएंगे।
डॉक्टर विवेक मूर्ति के अनुसार, अगर हम सही मायनों में अपने बच्चों को संतुष्ट देखना चाहते हैं तो इसके बारे में और गहराई से सोचने की जरूरत है। हम यह खोजें कि हम अपने बच्चों को कैसे एक ऐसा जीवन बनाकर दें जिसमें एक संतुष्टि तक ले जाने वाला मकसद हो, जिसमें सेवा भी शामिल हो, और जो आसपास के समुदाय के लिए लाभकारी हो। क्योंकि यही संतुष्ट जीवन के बिल्डिंग ब्लॉक होते हैं जो हम अंत में अपने बच्चों को देकर जाना चाहते हैं।
उन्होंने बताया कि पिछले दो दशकों में सुसाइड रेट भी तेजी से बढ़े हैं। लोगों में अकेलापन बढ़ रहा है। और सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि यह अकेलापन अब बच्चों में सबसे ज्यादा पाया जा रहा है। लेकिन यह उतना ही युवाओं को भी चुभ रहा है। मोबाइल फोन का एक्सेस अब सबके पास है। मोबाइल फोन से बच्चे भी नेगेटिव न्यूज कंज्यूम करते हैं जिससे वो हिंसात्मक हो रहे हैं।
औसत रूप से बच्चे सोशल मीडिया पर 3 घंटे से ज्यादा समय हर रोज बिता रहे हैं। इससे उनमें डिप्रेशन और एंजाइटी का रिस्क भी दोगुना हो रहा है। सोशल मीडिया के एल्गोरिदम कुछ ऐसे हैं कि इंसान को इसकी लत लग जाती है। ये एल्गोरिदम दिमाग पर सीधा असर डालते हैं और इससे निकलने वाले हॉर्मॉन्स को प्रभावित करते हैं। लेकिन इनको कंट्रोल करने के लिए कोई नियम-कानून नहीं है। पिछले 20 सालों से सोशल मीडिया हमारे जीवन पर प्रभाव डाल रही है, और एक समाज के रूप में हम फेल हो चुके हैं कि सोशल मीडिया कंपनियों पर सेफ्टी स्टैंडर्ड्स का दबाव बनाया जा सके। इसके बारे में सबको मिलकर सोचना होगा।